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शिमला पहुँची उड़नतश्तरी


सर्रर्रर्रर्रर्रर करती आई उड़नतश्तरी और दिल में उतर गई। समीर भाई के काव्य संग्रह "बिखरे मोती" ने मेरे दिल की कई तहों को खंगाला, कुरेदा, और मेरी स्मृतियाँ बरसों पुरानी दास्तानें कहने लगीं !
-प्रकाश बादल



"हैलो सर मैं कुरियर सर्विस से बोल रहा हूँ! आप कहाँ रहते हैं? आपका घर कहा पर है? आपका एक कुरियर आया है।" अचानक मेरे मोबाईल पर यह कॉल पाकर मैं डर गया, पिछले आठ महीनों से एक बैंक़ लोन की किश्त नहीं भरी थी तो सोचा कि उसी का नोटिस आ पहुँचा है। अपने शक की पुष्टि के लिए जब मैंने कुरियर वाले भाई साहब से पूछा कि कहाँ से आया है कुरियर? तो आवाज़ आई 'जबलपुर से सर!' मैं मन ही मन मुस्कुराया और खुशी से बोला अरे वाह!!!!!!!! उड़नतश्तरी.................. आखिर शिमला पहुँच ही गई और जब ये कुरियर मेरे हाथ लगा तो भाई समीर लाल का काव्य संग्रह "बिखरे मोती" मेरे हाथ में था। मैं समीर लाल जी से कभी व्यक्तिगत तौर से नहीं मिला हूँ, ब्लॉग जगत पर ही मुलाकात है उनसे! लेकिन उनकी तस्वीर मात्र देखकर उनके चेहरे से जो आत्मीयता झलकती है उससे ऐसा प्रतीत होता है कि कोई अपने ही परिवार का सदस्य मिल गया है। समीर लाल जी से मिलने का सुकून पाना भी मेरे लिए सुखद आश्चर्य ही होगा। ख़ैर! छोड़िये, समीर भाई की तारीफ, जैसे मैं कर रहा हूँ, सब करते हैं, तो इसमें कोई नई बात भी नहीं! समीर भाई का व्यक्तित्व ही ऐसा है। आज मैं सिर्फ "बिखरे मोती" की बात करना चाहता हूँ।

समीर लाल जी का यह संग्रह ममता,पीड़ा, सुख दुःख,रिश्ते,नाते देश,परदेस,विरह,स्नेह आदि-आदि कई खट्टे-मीठे अनुभवों की ऐसी लड़ी है जो हमें कभी हँसाती है तो कभी भावनाओं के सागर में गोते लगते हैं और कभी देश-प्रेम के रंगों में मन डूब जाता है।
माँ का न होना मुझे आज फिर से अखरने लगा। गाँव के बरगद,पीपल याद आने लगे! दूर गए अपनों से मिलने को जी चाहा मन किया कि अभी सात-समंदर पार जाकर सभी को अपनी बाहों में भींच लूँ। मंदिर, मस्जिद ,गुरुद्वारों, चर्चों को एक पोटली में बाँधकर कहीं दूर रख आऊँ और हिन्दु, मुस्लिम, सिख, ईसाई सभी का माथा चूम लूँ, सब के साथ रहूँ एक ही जगह्। आतंकवादियों के लिए बददुआएँ दूँ, भ्रष्ट नेताओं को गोली से उड़ा दूँ। जी चाहा, अपनी माँ को वापस माँग लूँ खुदा से, ऐसी जादुई छड़ी तलाश करूँ जिससे गाँव के सभी बरगद,पीपल फिर से हरे हो जाएँ। सारे हिसाब-किताब भूल जाऊँ, बस सभी को अपनो के पास होने की कोई जुगत लगाऊँ। "बिखरे मोती" पढकर सभी के मन में ऐसी बैचेनी होना स्वभाविक ही है।


बिखरे मोती को पढ़ना शुरू किया तो माँ के आँचल की याद आई जब नंग-धड़ंग वह निश्छल बचपन सभी लाग-लपेट से दूर था, किसी भी विपदा में पड़ने पर माँ के आँचल का अश्रय मिल जाना, कितना सुखद था और फिर माँ का अचानक छोड़ जाना, मानो खुद को खूँखार चुनौतियों के बीच बचाए रखने के लिए तरह-तरह जतन करना ! कितना दूभर हो गया जीवन जब माँ न रही। इसी उधेड़बुन का निचोड़ ही तो है "बिखरे मोती"! इन्हीं तरह-तरह के अनुभवों के बिखरे मोतियों को ही तो भाई समीर लाल जी ने बखूबी पिरोया है।
माँ के आँचल के बिना धूप कितनी तेज़ हो जाती है और कितने ही दानव हमें लीलने को तैयार रहते है, "बिखरे मोती" इन्हीं अनुभवों से दो-चार कराता है। इसके साथ इसमें इस बात की चिंता भी है कि जाति,धर्म हमें किस प्रकार लड़ाने-भिड़ाने के जुग़ाड़ में लगे हैं। दाल-रोटी हमें न चाह कर भी तरह-तरह के नाच नचा रही है और हम वतन से दूर रहने पर विवश हैं। "बिखरे मोती" सिर्फ प्रेम- रस की कविताओं को लेकर ही नहीं है बल्कि इसमें दाल-रोटी,रिश्ते-नातों और मिट्टी से होकर ग़ुज़रने की सफल कोशिश भी शामिल है। "बिखरे मोती " में माँ की कमी समीर भाई कुछ इस प्रकार बयाँ करते हैं :

"
जब भी रातों में हवा कोई गीत गुनगुनाती है।
माँ मुझको तेरी बहुत याद आती है।"

उनकी दूसरी कविता में माँ के विरह की छटपटाहट कुछ इस तरह है :
" मेरी छत जाने कहाँ गई
माँ
तू जबसे दूजे जहाँ गई
ये घर बिन छत का लगता है।"

कविता लिखने के लिए किसी छंद की आवश्यकता से पहले संवेदना का होना प्रमुख है समीर भाई की कविता ऐसा भी कहती नज़र आती है। उनकी ये पँक्तियाँ देखिये:

"मुझको ज्ञान नहीं बिल्कुल छंदों का,

बस मन में अनुराग लिये फिरता हूँ मैं।"

विदेश में देश की याद तो सभी को आती है लेकिन समीर भाई ने इस दर्द को ऐसे साँचे में ढाल दिया है कि सभी भाव-विभोर हो जाते हैं। देखिए :
"जब पेड़ से कोयल कुहकेगी,
फिर फूल खिलेंगे आँगन में

जब मिट्टी में सोंधी ख़ुश्बू
मन झूल उठेंगे सावन में,

तब मतवाला होकर के मैं,

एक दुनिया नई सजाऊँगा
....जब होली और दीवाली पर
रौनक होगी बाज़ारों में...
...जब फिर से बदली छाएगी,
और मेघ गाए मल्हारों में...
जब मैं भी शामिल हो पाऊँगा

खुशियों के त्यौहारों में

तब गीत ख़ुशी के लिख दूँगा

और गाकर तुम्हें सुनाऊँगा।"

उनका यही दर्द इन पंक्तियों में किस तरह झलक रहा है गौर फरमाईये:

"सुना है आज होली है
हम बेवतन....

आज फिर
आँख अपनी हमने

आँसुओं से धो ली है।"

धर्म के नाम पर बंटे हम एक चिड़िया के समान ही तो हैं जिस धर्म में ढल गये उसी के हो जाते हैं ऐसा न जाने क्यों होता है उनकी चिड़िया कविता की ये पंक्तिया कुछ ऐसा ही कह रही हैं :

"चूँ चूँ करती,
ची चीं करती

जिसने पाली उसकी होती
उसी धर्म का बोझ ये ढोती।"

पाँच खण्डों में विभाजित समीर भाई के संग्रह का यह तो था पहला खण्ड दूसरे खण्ड में उनकी मुक्त छंद की कविताएँ ध्यान खींचती हैं दूसरे खण्ड में माँ का संदर्भ फिर आया और अबकी बार ये संदर्भ कई सवाल भी खड़े कर गया जरा मुलायज़ा फरमाईये:
"सुना है वो पेड़ कट गया
उसी शाम माई नहीं रही।"
...और सड़क पार माई की कोठरी
अब सुलभ शौचालय कहलाती है।"
विदेश में देश का विरह यहाँ भी झलकता है:
"कल शाम गया
वादा करके

अब आता होगा

अंशुमाली।"

समीर भाई ने एक और अहम प्रश्न ये भी उठाया है कि रचना अच्छी होने से बेहतर है कि आलोचक से जान-पहचान हो ऐसा न होने पर अच्छा कवि अच्छी कविताओं के ले बेशक सिर पीटता रहे। समीर भाई कहते हैं:


"कमी!
बहर की नहीं...

मात्राओं की भी नहीं...

छंद की भी नहीं....

काफिया भी ठीक रहा...

फिर क्या रह गया?

आलोचक से पूछ लेता,

मगर वो भी इस बार पहचान का नहीं।"

व्यंग्य की जो सटीक शैली होनी चाहिए वही तो समीर भाई के पास है तभी तो वे ऐसी पंक्तियाँ कितनी आसानी से और सलीके से कह देते हैं:

"मंहगाई बढ़ रही है
रोज़गार घट रहे हैं

किसान मर रहे हैं.....
...एक के बाद एक जादू कर रही सरकार
मगर फिर भी कहती है कि

उसके पास कोई जादुई डंडी नहीं।"

दिखावे की ज़िन्दगी जी रहे हम सभी को समीर भाई मानो अच्छी तरह पहचानते हों,तभी तो वे हम पर ऐसे सवाल दागते हैं, जिसका जवाब देते हम झेंप जाते हैं
"सोना उछलता है,
कपास लुढ़कती है!

भ्रष्टाचार तरल से तरलतम हो

फैलता जा रहा है

और मानावीय संवेदनाएं

जमी हुईं एकदम कठोर!
...क्या तुम्हारे पास खुशी का कारण है!
या मेरी तरह तुम भी ढोंगी हो

दिखावे भर को खुश!!!"

"मौत" शीर्षक से समीर जी की ये क्षणिका देखिए कितनी सटीक है:

"उस रात नींद में धीमे से आकर,
थामा जो उसने मेरा हाथ...

और हुआ एक अदभुत अहसास..

पहली बार नींद से जागने का...

मैं फिर कभी नहीं जागा।"

समीर लाल के लेखन पर क्या कहते हैं लेखक और साहित्यकार :
समीर लाल मूलत: प्रेम के कवि हैं वरिष्ठ साहित्यकार कुँअर बैचैन कहते हैं।







"अपने पर हंस कर जग को हंसाते हैं समीरलाल",सुपरिचित लेखकपंकज सुबीर कहते हैं।"







"बिखरे मोती"
के रूप मेंअपने मन की ग़ठरी समीरलाल ने क़ाग़ाज पर ख़ोलकर रख दी है : रमेश हठीला वरिष्ठ लेखक!






उधर वरिष्ठ लेखक
राकेश खंडेलवाल का कहना है "समीर लाल" की लेखनी अपने आप में अनोखी है।"


समीर भाई राजनीति को नया महाभारत की संज्ञा देकर कहते हैं के


"जनता
अपने ही चमत्कार से,

चमत्कारित होती

अपने ही चयन को

मुँह बाए,

आश्चर्य से देखती!
...लोकतांत्रिक तरीके से,
लोकतंत्र का चीरहरण!"

समीर भाई की ये पंक्तियाँ भी काबिले ग़ौर हैं:

"दूर देश की यादों में,
जाने कब

खो जाता है वो!

जाने कब,

सो जाता है वो!"

उनके कुछ चित्र इस तरह भी हैं:
"साहिल पर बैठा
वो जो डूबने से बचने की,

सलाह देता है

उसे तैरना नहीं आता

वरना

बच सकता था।
*****
वो हंस कर

बस यह

अहसास दिलाता हैं

वो ज़िन्दा है अभी।"

अगर आपको दुनिया रंग-बिरंगी लगती है तो फिर समीर भाई की ये पंक्तियाँ पढ़ लीजिए आपको अपनी ग़लतफहमी का शायद अहसास हो जाए:
"सबके देखने के,
अपने-अपने ढंग़ है,

बाकि सब

हमारे चश्मों के रंग हैं।"

तीसरे खण्ड में समीर भाई क़ी ग़ज़लें भी मन को छू जाती हैं। ज़ाहिर है इसमें शुरूआत शबाब से होती है, कुछ इस तरह:

"दम सीने में फंसा हुआ कमवख़्त निकले,
तिरछा सा वार बाकी है,इक तेरी नज़र का।"

और फिर समीर जी भला प्यार के ही रंगों में कब तक डूबे रहते? ज़रा ये लाईनें देखिये:

"देखता हूँ बैठकर मैं इस चिता पर कब्रगाह,
छोड़ दो इस बात को,ये मज़हबी हो जाएगी?"

"धर्म का ले नाम चलती है यहाँ पर जो हवा,
पेड़ उसमें एक मैं जड़ से उखड़ता रह गया।"

इसके अतिरिक्त समीर लाल जी ने मुक्तक और क्षणिकाओं में भी प्यार के साथ-साथ दाल-रोटी,तीज-त्यौहार,और दहेज जैसे ज्वलंत मसले अपने ही रंग में उठाए हैं, इसी कारण उनका यह संग्रह पठनीय बन पड़ा है। भूमिका वरिष्ठ साहित्यकार कुँअर बेचैन ने बाँधी है और सुपरिचित लेखक पंकज सुबीर ने भी 'बिखरे मोती' की लेखनी को सराहा है।
लेखक राकेश खंडेलवाल जी ने समीर भाई को अनोखी लेखनी का मालिक कहा है, सिहोर के शिवना प्रकाशन ने इस पुस्तक को प्रकाशित किया है।पुस्तक की छपाई भी आकर्षक है। समीर भाई ने यह पुस्तक अपनी माता जी स्वर्गीय श्रीमति सुषमा लाल को समर्पित किया है। पुस्तक हर तरह से आकर्षित करती है। पुस्तक का डिज़ाईन संजय बैंगणी और पंकज बैंग़णी ने बनाया है जो बहुत ही आकर्षक बन पड़ा है। बैंग़णी बंधुओं को भला कौन नहीं जानता। इस प्रकार समीर भाई का यह संग्रह हर तरह से आकर्षित करता है और सभी के मन को छू जाता है क्योंके समीर भाई सभी के दिलों में रहते हैं और हर दिल अजीज़ है! तभी तो कहते हैं समीर भाई की उड़नतश्तरी टोरंटो से शिमला तक सर्रर्रर्रर्रर्रर्रर्रर्रर्र !!!!!!!!!



"बिखरे मोती" यहाँ से मँगाएँ:


पुस्तक का मूल्य 200 रुपये है डाक खर्च अतिरिक्त।










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19 comments:

नीरज गोस्वामी said...

प्रकाश भाई आपने हर दिल अजीज़ समीर जी की किताब की इतनी खूबसूरत ढंग से आपने व्याख्या की है की दिल बाग़ बाग़ हो गया...उनकी प्रतिभा के हम सब कायल हैं...बहुत बहुत शुक्रिया आपका...
नीरज

रंजन said...

बहुत सुन्दर और विस्तृत व्याख्या... आपने पुस्तक में रुचि और बढ़ा दी..

Pt.डी.के.शर्मा"वत्स" said...

समीर जी के बहुमुखी व्यक्तित्व से तो सारा चिट्ठाजगत भली भांती परिचित है......

"अर्श" said...

भाई साहिब नमस्कार,
उड़नतश्तरी की जिस तरह से आपने पुस्तक समीक्षा करी है वो बड़ी ही तरलता से जहन में समाती चली गयी ... बहोत ही खूबसूरती से कहा है आपने... हालाली मैंने उनकी पुस्तक पढ़ी है क्या खूब लिखते है वो ... उनके शे'र पे तवज्जो दें की..

फ़ैल कर के सो सकूँ इतनी जगह मिलती नहीं..
ठण्ड का बस नाम लेखर मैं सिकुड़ता रह गया...

बधाई बिखरे मोती के लिए...

अर्श

vijay gaur/विजय गौड़ said...

भाई समीर लाल जी को बहुत बहुत शुभकामनाएं और आपका आभार।

नरेश सिह राठौङ said...

यह कहना बहुत ही मुष्किल है कि ज्यादा अच्छा क्या लगा ? समीर जी का व्यक्तीत्व , समीर जी की लेखनी, या आपके द्वारा की गयी व्याख्या जिसमें पूरी किताब को एक पोस्ट मे समाने की कोशीश की गयी है । इस कठिन काम के लिये आपका अभार ।

MUFLIS said...

बादल जी , नमस्कार !
समीर जी के व्यक्तित्व , उनके लेखन , और
उनकी कृति पर आपका आलेख बहुत ही प्रभावशाली
बन पड़ा है . इस में कोई दो राए नहीं कि समीर जी एक विद्वान् पुरुष और समृद्ध साहित्यकार हैं.
उन्हें पढना अपने आप में एक रोचक अनुभव रहता है .
मेरी शुभकामनाएं ....
---मुफलिस---

रंजना [रंजू भाटिया] said...

बहुत ही अच्छी समीक्षा कर दी है आपने प्रकाश जी ..कुछ बाकी कहने को बचा ही नहीं है ..सच में उन्होंने बहुत दिल से यह किताब लिखी है .. माँ पर लिखी कविता तो विशेष रूप से पसंद आई है .

Udan Tashtari said...

प्रकाश भाई

आपने इतने स्नेह से और पूरी लगन से इस पुस्तक की समीक्षा की है, आपका बहुत साधुवाद.

सभी का असीम स्नेह इसी तरह मिलता रहे, और क्या चाहिये.

बहुत बहुत आभार.

डॉ .अनुराग said...

लीजिये .सब कुछ आपने कह दिया......हमने भी पढ़ा है जी उन्हें .पर शायद जिस खूबी से आपने ब्यान किया ...हम नहीं कर सकते .....

manu said...

हम पढ़ तो अभी तक नहीं पाए है ये किताब पर आपकी और इससे पहले अर्श भाई की समीक्षा पढ़ी है,,,,,उसी के आधार पर तारीफ़ जितनी की जाए कम है,,,,,
आलोचक वाला व्यंग बहुत पसंद आया,,,,
माँ पर लिखी लाईने भी काबिले तारीफ ,,,और राजनीति और आज के हालत पर तो कमाल,,,,
बहुत साधा हुआ लेखन ,,,,
बहुत बहुत बधाई ,,,,,

Mumukshh Ki Rachanain said...

बहुत ही अच्छी समीक्षा कर दी है आपने प्रकाश जी ..कुछ बाकी कहने को बचा ही नहीं है ..

बधाई आपको भी और समीर जी को भी

चन्द्र मोहन गुप्त

Harkirat Haqeer said...

प्रकाश जी ,

इतनी बढिया समिक्षा....?? आपकी प्रतिभा के तो कायल हो गए हम....अब तो ये संकलन पढने का मन कर रहा है ...समीर जी जरा कृपा - दृष्टि रखियेगा .....इधर भी .....!!

Puneet Sahalot said...

bhaiya itne dino baad aap blog par aye kaafi achha laga.
aapke blog par kuch naya padhne ka wait kar raha hu.

aapke kehne par deleted poem fir se post kari h... padhiyega.. :)

अनुपम अग्रवाल said...

समीक्षा की प्रतिभा आपमें गज़ब की समाई,

आपको दुबारा यह सफर शुरू करने की बधाई

amarpathik@gmail.com said...

बिखर भी जायें तो भी चमक दिखायेंगे,
जहां भी होंगे ये मोती नज़र आ जायेंगे,
वो मस्त झौंके जिस को समीर कह्ते हैं,
बहेंगे जब-जब शीतलता ही तो लायेंगे....धन्यवाद बादल जी बिखरे मोती के लिये जो जानकारी आप नें दी बहुत अच्छी लगी,कोटि-कोटि धन्यावाद...

adharshila said...

काफी दिनों बाद आपका बिना मीटर का चेहरा देखा ! क्या मैं अभी भी आपकी समृतियों में हूँ ?

kshama said...

Aaj to maano khazana haath lag gaya!

Sameer ji ki, khaas kar maa pe likhee rachnaon ne rula diya!

Tanu said...

In poems se prove ho gaya ki
Poem isPeace of imotional music.

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